रविवार, 26 जून 2011

गुरु अंगद देव जी ਗੁਰੂ ਅੰਗਦ ਦੇਵ

गुरु अंगद देव जी फेरु मल जी तरेहण क्षत्रि के घर माता दया कौर जी( रामो जी, माता सबराई जी, मनसा देवी नामों से भी जानी जाती हैं) की पवित्र कोख से मत्ते की सराए परगना मुक्तसर में वैशाख सुदी एकादशी सोमवार संवत १५६१ ( 31 मार्च, 1504) को अवतरित हुए। आपके बचपन का नाम लहिणा जी था। गुरु नानक देव जी को अपने सेवा भाव से प्रसन्न करके आप गुरु अंगद देव जी के नाम से पहचाने जाने लगे। आप जी की शादी खडूर निवासी श्री देवी चंद क्षत्रि की सपुत्री खीवी जी के साथ १६ मघर संवत १५७६ में हुई। खीवी जी की कोख से दो साहिबजादे दासू जी व दातू जी और दो सुपुत्रियाँ अमरो जी व अनोखी जी ने जन्म लिया।
भाई जोधा सिंह खडूर निवासी से लहिणा जी को गुरु दर्शन की प्रेरणा मिली। जब आप संगत के साथ करतारपुर के पास से गुजरने लगे तब आप दर्शन करने के लिए गुरु जी के डेरे में आ गए। गुरु जी के पूछने पर आपने बताया, "मैं खडूर संगत के साथ मिलकर वैष्णोदेवी के दर्शन करने जा रहा हूँ। आपकी महिमा सुनकर दर्शन करने की इच्छा पैदा हुई। कृपा करके आप मुझे उपदेश दो जिससे मेरा जीवन सफल हो जाये।"
गुरु जी ने कहा, "भाई लहिणा तुझे प्रभु ने वरदान दिया है, तुमने लेना है और हमने देना है। अकाल पुरख की भक्ति किया करो। यह देवी देवता सब उसके ही बनाये हुए हैं।"

लहिणा जी ने अपने साथियों से कहा- आप देवी के दर्शन कर आओ, मुझे मोक्ष देने वाले पूर्ण पुरुष मिल गए हैं। आप कुछ समय गुरु जी की वहीं सेवा करते रहे और नाम दान का उपदेश लेकर वापिस खडूर अपनी दुकान पर आगये परन्तु आपका धयान सदा करतारपुर गुरु जी के चरणों में ही रहता। कुछ दिनों के बाद आप अपनी दुकान से नमक की गठरी हाथ में उठाये करतारपुर आ गए। उस समय गुरु जी धान में से नदीन निकलवा रहे थे। गुरु जी ने नदीन की गठरी को गाये भैंसों के लिए घर ले जाने के लिए कहा। लहिणा जी ने शीघ्रता से भीगी गठड़ी को सिर पर उठा लिया और घर ले आये। गुरु जी के घर आने पर माता सुलखणी जी गुरु जी को कहने लगी जिस सिख को आपने पानी से भीगी गठड़ी के साथ भेजा था उसके सारे कपड़े कीचड़ से भीग गए हैं। आपने उससे यह गठड़ी नहीं उठवानी थी।
गुरु जी ने हँस कर कहा, "यह कीचड़ नहीं जिससे उसके कपड़े भीगे हैं, बल्कि केसर है| यह गठड़ी को और कोई नहीं उठा सकता था, अतः उसने उठा ली है।" श्री लहिणा जी गुरु जी की सेवा में हमेशा हाजिर रहते व अपना ध्यान गुरु जी के चरणों में ही लगाये रखते।
सिखों को श्री लहिणा जी की योग्यता दिखाने के लिए तथा दोनों साहिबजादो, भाई बुड्डा जी आदि और सिख प्रेमियों की परीक्षा के लिए गुरू नानक देव जी ने कई कौतक रचे, जिनमे से कुछ का वर्णन इस प्रकार है:-

गुरु जी ने एक दिन रात के समय अपने सिखों व सुपुत्रों को बारी-२ से यह कहा कि हमारे वस्त्र नदी पर धो कर सुखा लाओ। पुत्रो ने कहा,"अब रात आराम करो दिन निकले धो लायेंगे।" सिखों ने भी आज्ञा ना मानी। पर लहिणा जी उसी समय आपके वस्त्र उठाकर धोने चले गए और सुखा कर वापिस लाए।
एक दिन गुरु जी के निवास स्थान पर चूहिया मरी पड़ी थी। गुरु जी ने लखमी दास व श्री चंद के साथ और सिखों को भी कहा- बेटा ! यह मृत चूहिया बाहर फेंक दो। बदबू के कारण किसी ने भी गुरु जी की बात की परवाह नहीं की। फिर गुरु जी ने कहा- पुरुष ! यह मृत चूहिया फेंक कर फर्श साफ कर दो। तब भाई लहिणा जी शीघ्रता से चूहिया पकड़कर बाहर फेंक दी और फर्श धोकर साफ कर दिया।
एक दिन गुरु जी ने कांसे का एक कटोरा कीचड वाले पानी में फेंक कर कहा कि हमारा कीचड़ में गिरा कटोरा साफ करके लाओ। वस्त्र खराब होने के डर से बेटों व सिखों ने इंकार कर दिया। पर लहिणा जी उसी समय कीचड़ वाले गड्डे में चले गए और कटोरा साफ करके गुरु जी के समक्ष आये।
एक बार लगातार बारिश के कारण लंगर का प्रबंध ना हो सका। गुरु जी जी ने सबको कहा- इस सामने वाले कीकर के वृक्ष पर चढ़कर उसे हिलाकर मिठाई झाड़ो। सब ने कहा- महाराज ! कीकरों पर भी मिठाई होती है, जो हिलाने पर नीचे गिरेगी? संगत के सामने हमे शर्मिंदा क्यों करवाते हो? तब गुरु जी ने भाई लहिणा को कहा- पुरुष ! तुम ही कीकर को हिलाकर संगत को मिठाई खिलाओ। संगत भूखी है। गुरु जी का आदेश मान कर भाई जी ने वैसा ही किया। वृक्ष के हिलते ही बहुत सारी मिठाई नीचे गिरी, जिसे खाकर संगत तृप्त हो गई।
एक दिन गुरु जी ने मैले कुचैले वस्त्र पहनकर, हाथ में डंडा पकड़कर, कमर पर रस्से बांध ली व चार पांच कुत्ते पीछे लगा लिए। काटने के भय से कोई भी गुरु जी के नजदीक ना आये। तत्पश्चात जब गुरु जी जंगल पहुँचे तो केवल पांच सिख, बाबा बुड्डा जी व लहिणा जी साथ रह गए। गुरु जी ने अपनी माया के साथ चादर में लपेटा हुआ मुर्दा दिखाया व सिखों को खाने के लिए कहा। यह बात सुनकर दूसरे सिख वृक्ष के पीछे जा खड़े हुए,पर भाई लहिणा जी वहीं खड़े रहे। गुरु जी ने उनसे ना जाने का कारण पूछा तो भाई कहने लगे, मेरे तो तुम ही तुम हो, में कहा जाऊँ? तब गुरु जी ने कहा अगर नहीं जाना तो इस मुर्दे को खाओ। भाई जी ने गुरु जी से पूछा, महाराज! किस तरफ से खाऊँ, सिर या पाँव कि तरफ से? गुरु जी ने उत्तर दिया पाँव की तरफ से। जब लहिणा जी गुरु जी का वचन मानकर पाँव वाला कपड़ा उठाया तो वहाँ मुर्दे की जगह कड़ाह का परसाद प्रतीत हुआ। जब भाई जी खाने को तैयार हुए तो गुरु जी ने उन्हें अपनी बाहों में लेकर कहा कि हमारे अंग के साथ लगकर आप अंगद हो गए।
इस तरह आपको अपनी गद्दी का योग्य अधिकारी जानकर १७ आषाढ़ संवत १५१६ को पांच पैसे व नारियल आप जी के आगे रखकर तीन परिक्रमा कि और पहले खुद माथा टेका, फिर संगत से टिकवाया। उसके पश्चात् वचन किया कि आज से इन्हीं को मेरा ही रूप समझना, जो इनको नहीं मानेगा वो हमारा सिख नहीं है। गुरु जी कि आज्ञा मानकर सभी ने गुरु अंगद देव जी को माथा टेक दिया मगर दोनों साहिबजादों ने यह कहकर माथा टेकने से इंकार कर दिया कि हम अपने एक सेवक को माथा टेकते अच्छे नहीं लगते।

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