गुरुवार, 30 जून 2011
बुधवार, 29 जून 2011
गुरू अमर दास जी
श्री गुरू अमर दास जी का जन्म पिता तेज भान ओर माता सुलखणी जी के घर वैशाख सुदी १४ संवत १५३६ को गाँव बासरके परगना झबाल में हुआ।
बहुत देर तक गुरू साहिब गंगा दर्शन के लिए जाते रहे । जब गुरू साहिब ने बीबी अमरॊ जी से श्री गुरू नानक देव जी की वाणी सुनी तो श्री गुरू अमर दास जी ने बीबी अमरॊ जी से श्री गुरू नानक देव जी के बारे में पूछा । उस समय श्री गुरू अंगद देव जी गुरू-गद्दी पर विराजमान थे । श्री गुरू अमर दास जी ने खडुर साहिब में रहकर १२ साल तक श्री गुरु अंगद देव जी की सेवा की । गुरू अमर दास जी हर रोज़ गोइंदवाल साहिब से पैदल चलकर श्री गुरू अंगद देव जी के इशनान के लिए ब्यास नदी से पानी लेकर आते थे ।
बहुत देर तक गुरू साहिब गंगा दर्शन के लिए जाते रहे । जब गुरू साहिब ने बीबी अमरॊ जी से श्री गुरू नानक देव जी की वाणी सुनी तो श्री गुरू अमर दास जी ने बीबी अमरॊ जी से श्री गुरू नानक देव जी के बारे में पूछा । उस समय श्री गुरू अंगद देव जी गुरू-गद्दी पर विराजमान थे । श्री गुरू अमर दास जी ने खडुर साहिब में रहकर १२ साल तक श्री गुरु अंगद देव जी की सेवा की । गुरू अमर दास जी हर रोज़ गोइंदवाल साहिब से पैदल चलकर श्री गुरू अंगद देव जी के इशनान के लिए ब्यास नदी से पानी लेकर आते थे ।
रविवार, 26 जून 2011
गुरु अंगद देव जी ਗੁਰੂ ਅੰਗਦ ਦੇਵ
गुरु अंगद देव जी फेरु मल जी तरेहण क्षत्रि के घर माता दया कौर जी( रामो जी, माता सबराई जी, मनसा देवी नामों से भी जानी जाती हैं) की पवित्र कोख से मत्ते की सराए परगना मुक्तसर में वैशाख सुदी एकादशी सोमवार संवत १५६१ ( 31 मार्च, 1504) को अवतरित हुए। आपके बचपन का नाम लहिणा जी था। गुरु नानक देव जी को अपने सेवा भाव से प्रसन्न करके आप गुरु अंगद देव जी के नाम से पहचाने जाने लगे। आप जी की शादी खडूर निवासी श्री देवी चंद क्षत्रि की सपुत्री खीवी जी के साथ १६ मघर संवत १५७६ में हुई। खीवी जी की कोख से दो साहिबजादे दासू जी व दातू जी और दो सुपुत्रियाँ अमरो जी व अनोखी जी ने जन्म लिया।
लहिणा जी ने अपने साथियों से कहा- आप देवी के दर्शन कर आओ, मुझे मोक्ष देने वाले पूर्ण पुरुष मिल गए हैं। आप कुछ समय गुरु जी की वहीं सेवा करते रहे और नाम दान का उपदेश लेकर वापिस खडूर अपनी दुकान पर आगये परन्तु आपका धयान सदा करतारपुर गुरु जी के चरणों में ही रहता। कुछ दिनों के बाद आप अपनी दुकान से नमक की गठरी हाथ में उठाये करतारपुर आ गए। उस समय गुरु जी धान में से नदीन निकलवा रहे थे। गुरु जी ने नदीन की गठरी को गाये भैंसों के लिए घर ले जाने के लिए कहा। लहिणा जी ने शीघ्रता से भीगी गठड़ी को सिर पर उठा लिया और घर ले आये। गुरु जी के घर आने पर माता सुलखणी जी गुरु जी को कहने लगी जिस सिख को आपने पानी से भीगी गठड़ी के साथ भेजा था उसके सारे कपड़े कीचड़ से भीग गए हैं। आपने उससे यह गठड़ी नहीं उठवानी थी।
गुरु जी ने हँस कर कहा, "यह कीचड़ नहीं जिससे उसके कपड़े भीगे हैं, बल्कि केसर है| यह गठड़ी को और कोई नहीं उठा सकता था, अतः उसने उठा ली है।" श्री लहिणा जी गुरु जी की सेवा में हमेशा हाजिर रहते व अपना ध्यान गुरु जी के चरणों में ही लगाये रखते।
सिखों को श्री लहिणा जी की योग्यता दिखाने के लिए तथा दोनों साहिबजादो, भाई बुड्डा जी आदि और सिख प्रेमियों की परीक्षा के लिए गुरू नानक देव जी ने कई कौतक रचे, जिनमे से कुछ का वर्णन इस प्रकार है:-
गुरु जी ने एक दिन रात के समय अपने सिखों व सुपुत्रों को बारी-२ से यह कहा कि हमारे वस्त्र नदी पर धो कर सुखा लाओ। पुत्रो ने कहा,"अब रात आराम करो दिन निकले धो लायेंगे।" सिखों ने भी आज्ञा ना मानी। पर लहिणा जी उसी समय आपके वस्त्र उठाकर धोने चले गए और सुखा कर वापिस लाए।
एक दिन गुरु जी के निवास स्थान पर चूहिया मरी पड़ी थी। गुरु जी ने लखमी दास व श्री चंद के साथ और सिखों को भी कहा- बेटा ! यह मृत चूहिया बाहर फेंक दो। बदबू के कारण किसी ने भी गुरु जी की बात की परवाह नहीं की। फिर गुरु जी ने कहा- पुरुष ! यह मृत चूहिया फेंक कर फर्श साफ कर दो। तब भाई लहिणा जी शीघ्रता से चूहिया पकड़कर बाहर फेंक दी और फर्श धोकर साफ कर दिया।
एक दिन गुरु जी ने कांसे का एक कटोरा कीचड वाले पानी में फेंक कर कहा कि हमारा कीचड़ में गिरा कटोरा साफ करके लाओ। वस्त्र खराब होने के डर से बेटों व सिखों ने इंकार कर दिया। पर लहिणा जी उसी समय कीचड़ वाले गड्डे में चले गए और कटोरा साफ करके गुरु जी के समक्ष आये।
एक बार लगातार बारिश के कारण लंगर का प्रबंध ना हो सका। गुरु जी जी ने सबको कहा- इस सामने वाले कीकर के वृक्ष पर चढ़कर उसे हिलाकर मिठाई झाड़ो। सब ने कहा- महाराज ! कीकरों पर भी मिठाई होती है, जो हिलाने पर नीचे गिरेगी? संगत के सामने हमे शर्मिंदा क्यों करवाते हो? तब गुरु जी ने भाई लहिणा को कहा- पुरुष ! तुम ही कीकर को हिलाकर संगत को मिठाई खिलाओ। संगत भूखी है। गुरु जी का आदेश मान कर भाई जी ने वैसा ही किया। वृक्ष के हिलते ही बहुत सारी मिठाई नीचे गिरी, जिसे खाकर संगत तृप्त हो गई।
एक दिन गुरु जी ने मैले कुचैले वस्त्र पहनकर, हाथ में डंडा पकड़कर, कमर पर रस्से बांध ली व चार पांच कुत्ते पीछे लगा लिए। काटने के भय से कोई भी गुरु जी के नजदीक ना आये। तत्पश्चात जब गुरु जी जंगल पहुँचे तो केवल पांच सिख, बाबा बुड्डा जी व लहिणा जी साथ रह गए। गुरु जी ने अपनी माया के साथ चादर में लपेटा हुआ मुर्दा दिखाया व सिखों को खाने के लिए कहा। यह बात सुनकर दूसरे सिख वृक्ष के पीछे जा खड़े हुए,पर भाई लहिणा जी वहीं खड़े रहे। गुरु जी ने उनसे ना जाने का कारण पूछा तो भाई कहने लगे, मेरे तो तुम ही तुम हो, में कहा जाऊँ? तब गुरु जी ने कहा अगर नहीं जाना तो इस मुर्दे को खाओ। भाई जी ने गुरु जी से पूछा, महाराज! किस तरफ से खाऊँ, सिर या पाँव कि तरफ से? गुरु जी ने उत्तर दिया पाँव की तरफ से। जब लहिणा जी गुरु जी का वचन मानकर पाँव वाला कपड़ा उठाया तो वहाँ मुर्दे की जगह कड़ाह का परसाद प्रतीत हुआ। जब भाई जी खाने को तैयार हुए तो गुरु जी ने उन्हें अपनी बाहों में लेकर कहा कि हमारे अंग के साथ लगकर आप अंगद हो गए।
इस तरह आपको अपनी गद्दी का योग्य अधिकारी जानकर १७ आषाढ़ संवत १५१६ को पांच पैसे व नारियल आप जी के आगे रखकर तीन परिक्रमा कि और पहले खुद माथा टेका, फिर संगत से टिकवाया। उसके पश्चात् वचन किया कि आज से इन्हीं को मेरा ही रूप समझना, जो इनको नहीं मानेगा वो हमारा सिख नहीं है। गुरु जी कि आज्ञा मानकर सभी ने गुरु अंगद देव जी को माथा टेक दिया मगर दोनों साहिबजादों ने यह कहकर माथा टेकने से इंकार कर दिया कि हम अपने एक सेवक को माथा टेकते अच्छे नहीं लगते।
भाई जोधा सिंह खडूर निवासी से लहिणा जी को गुरु दर्शन की प्रेरणा मिली। जब आप संगत के साथ करतारपुर के पास से गुजरने लगे तब आप दर्शन करने के लिए गुरु जी के डेरे में आ गए। गुरु जी के पूछने पर आपने बताया, "मैं खडूर संगत के साथ मिलकर वैष्णोदेवी के दर्शन करने जा रहा हूँ। आपकी महिमा सुनकर दर्शन करने की इच्छा पैदा हुई। कृपा करके आप मुझे उपदेश दो जिससे मेरा जीवन सफल हो जाये।"
गुरु जी ने कहा, "भाई लहिणा तुझे प्रभु ने वरदान दिया है, तुमने लेना है और हमने देना है। अकाल पुरख की भक्ति किया करो। यह देवी देवता सब उसके ही बनाये हुए हैं।"
लहिणा जी ने अपने साथियों से कहा- आप देवी के दर्शन कर आओ, मुझे मोक्ष देने वाले पूर्ण पुरुष मिल गए हैं। आप कुछ समय गुरु जी की वहीं सेवा करते रहे और नाम दान का उपदेश लेकर वापिस खडूर अपनी दुकान पर आगये परन्तु आपका धयान सदा करतारपुर गुरु जी के चरणों में ही रहता। कुछ दिनों के बाद आप अपनी दुकान से नमक की गठरी हाथ में उठाये करतारपुर आ गए। उस समय गुरु जी धान में से नदीन निकलवा रहे थे। गुरु जी ने नदीन की गठरी को गाये भैंसों के लिए घर ले जाने के लिए कहा। लहिणा जी ने शीघ्रता से भीगी गठड़ी को सिर पर उठा लिया और घर ले आये। गुरु जी के घर आने पर माता सुलखणी जी गुरु जी को कहने लगी जिस सिख को आपने पानी से भीगी गठड़ी के साथ भेजा था उसके सारे कपड़े कीचड़ से भीग गए हैं। आपने उससे यह गठड़ी नहीं उठवानी थी।
गुरु जी ने हँस कर कहा, "यह कीचड़ नहीं जिससे उसके कपड़े भीगे हैं, बल्कि केसर है| यह गठड़ी को और कोई नहीं उठा सकता था, अतः उसने उठा ली है।" श्री लहिणा जी गुरु जी की सेवा में हमेशा हाजिर रहते व अपना ध्यान गुरु जी के चरणों में ही लगाये रखते।
सिखों को श्री लहिणा जी की योग्यता दिखाने के लिए तथा दोनों साहिबजादो, भाई बुड्डा जी आदि और सिख प्रेमियों की परीक्षा के लिए गुरू नानक देव जी ने कई कौतक रचे, जिनमे से कुछ का वर्णन इस प्रकार है:-
गुरु जी ने एक दिन रात के समय अपने सिखों व सुपुत्रों को बारी-२ से यह कहा कि हमारे वस्त्र नदी पर धो कर सुखा लाओ। पुत्रो ने कहा,"अब रात आराम करो दिन निकले धो लायेंगे।" सिखों ने भी आज्ञा ना मानी। पर लहिणा जी उसी समय आपके वस्त्र उठाकर धोने चले गए और सुखा कर वापिस लाए।
एक दिन गुरु जी के निवास स्थान पर चूहिया मरी पड़ी थी। गुरु जी ने लखमी दास व श्री चंद के साथ और सिखों को भी कहा- बेटा ! यह मृत चूहिया बाहर फेंक दो। बदबू के कारण किसी ने भी गुरु जी की बात की परवाह नहीं की। फिर गुरु जी ने कहा- पुरुष ! यह मृत चूहिया फेंक कर फर्श साफ कर दो। तब भाई लहिणा जी शीघ्रता से चूहिया पकड़कर बाहर फेंक दी और फर्श धोकर साफ कर दिया।
एक दिन गुरु जी ने कांसे का एक कटोरा कीचड वाले पानी में फेंक कर कहा कि हमारा कीचड़ में गिरा कटोरा साफ करके लाओ। वस्त्र खराब होने के डर से बेटों व सिखों ने इंकार कर दिया। पर लहिणा जी उसी समय कीचड़ वाले गड्डे में चले गए और कटोरा साफ करके गुरु जी के समक्ष आये।
एक बार लगातार बारिश के कारण लंगर का प्रबंध ना हो सका। गुरु जी जी ने सबको कहा- इस सामने वाले कीकर के वृक्ष पर चढ़कर उसे हिलाकर मिठाई झाड़ो। सब ने कहा- महाराज ! कीकरों पर भी मिठाई होती है, जो हिलाने पर नीचे गिरेगी? संगत के सामने हमे शर्मिंदा क्यों करवाते हो? तब गुरु जी ने भाई लहिणा को कहा- पुरुष ! तुम ही कीकर को हिलाकर संगत को मिठाई खिलाओ। संगत भूखी है। गुरु जी का आदेश मान कर भाई जी ने वैसा ही किया। वृक्ष के हिलते ही बहुत सारी मिठाई नीचे गिरी, जिसे खाकर संगत तृप्त हो गई।
एक दिन गुरु जी ने मैले कुचैले वस्त्र पहनकर, हाथ में डंडा पकड़कर, कमर पर रस्से बांध ली व चार पांच कुत्ते पीछे लगा लिए। काटने के भय से कोई भी गुरु जी के नजदीक ना आये। तत्पश्चात जब गुरु जी जंगल पहुँचे तो केवल पांच सिख, बाबा बुड्डा जी व लहिणा जी साथ रह गए। गुरु जी ने अपनी माया के साथ चादर में लपेटा हुआ मुर्दा दिखाया व सिखों को खाने के लिए कहा। यह बात सुनकर दूसरे सिख वृक्ष के पीछे जा खड़े हुए,पर भाई लहिणा जी वहीं खड़े रहे। गुरु जी ने उनसे ना जाने का कारण पूछा तो भाई कहने लगे, मेरे तो तुम ही तुम हो, में कहा जाऊँ? तब गुरु जी ने कहा अगर नहीं जाना तो इस मुर्दे को खाओ। भाई जी ने गुरु जी से पूछा, महाराज! किस तरफ से खाऊँ, सिर या पाँव कि तरफ से? गुरु जी ने उत्तर दिया पाँव की तरफ से। जब लहिणा जी गुरु जी का वचन मानकर पाँव वाला कपड़ा उठाया तो वहाँ मुर्दे की जगह कड़ाह का परसाद प्रतीत हुआ। जब भाई जी खाने को तैयार हुए तो गुरु जी ने उन्हें अपनी बाहों में लेकर कहा कि हमारे अंग के साथ लगकर आप अंगद हो गए।
इस तरह आपको अपनी गद्दी का योग्य अधिकारी जानकर १७ आषाढ़ संवत १५१६ को पांच पैसे व नारियल आप जी के आगे रखकर तीन परिक्रमा कि और पहले खुद माथा टेका, फिर संगत से टिकवाया। उसके पश्चात् वचन किया कि आज से इन्हीं को मेरा ही रूप समझना, जो इनको नहीं मानेगा वो हमारा सिख नहीं है। गुरु जी कि आज्ञा मानकर सभी ने गुरु अंगद देव जी को माथा टेक दिया मगर दोनों साहिबजादों ने यह कहकर माथा टेकने से इंकार कर दिया कि हम अपने एक सेवक को माथा टेकते अच्छे नहीं लगते।
गुरुवार, 23 जून 2011
गुरू नानक देव जी
गुरू नानक देव सिखों के प्रथम गुरू हैं । गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) 15 अप्रैल 1469 ई. (वैशाख सुदी 3, संवत् 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ। सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। तलवंडी पाकिस्तान के लाहौर जिले से 30 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।
नानक देव जी के जन्म के समय प्रसूति गृह अलौकिक ज्योत से भर उठा। शिशु के मस्तक के आसपास तेज आभा फैली हुई थी, चेहरे पर अद्भुत शांति थी। पिता बाबा कालूचंद्र बेदी और माता तृप्ति ने बालक का नाम नानक रखा। गाँव के पुरोहित पंडित हरदयाल ने जब बालक के बारे में सुना तो उन्हें समझने में देर न लगी कि इसमें जरूर ईश्वर का कोई रहस्य छुपा हुआ है।
जीती नौखंड मेदनी सतिनाम दा चक्र चलाया, भया आनंद जगत बिच कल तारण गुरू नानक आया ।
बचपन से ही नानक के मन में आध्यात्मिक भावनाएँ मौजूद थीं। पिता ने पंडित हरदयाल के पास उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। पंडितजी ने नानक को और ज्ञान देना प्रारंभ किया तो बालक ने अक्षरों का अर्थ पूछा। पंडितजी निरुत्तर हो गए। नानकजी ने क से लेकर ड़ तक सारी पट्टी कविता रचना में सुना दी। पंडितजी आश्चर्य से भर उठे।
उन्हें अहसास हो गया कि नानक को स्वयं ईश्वर ने पढ़ाकर संसार में भेजा है। इसके उपरांत नानक को मौलवी कुतुबुद्दीन के पास पढ़ने के लिए बिठाया गया। नानक के प्रश्न से मौलवी भी निरुत्तर हो गए तो उन्होंने अलफ, बे की सीफहीं के अर्थ सुना दिए। मौलवी भी नानकदेवजी की विद्वता से प्रभावित हुए।
विद्यालय की दीवारें नानक को बाँधकर न रख सकीं। गुरु द्वारा दिया गया पाठ उन्हें नीरस और व्यर्थ प्रतीत हुआ। अंतर्मुखी प्रवृत्ति और विरक्ति उनके स्वभाव के अंग बन गए। एक बार पिता ने उन्हें भैंस चराने के लिए जंगल में भेजा। जंगल में भैसों की फिक्र छोड़ वे आँख बंद कर अपनी मस्ती में लीन हो गए। भैंसें पास के खेत में घुस गईं और सारा खेत चर डाला। खेत का मालिक नानकदेव के पास जाकर शिकायत करने लगा।
जब नानक ने नहीं सुना तो जमींदार रायबुलार के पास पहुँचा। नानक से पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि घबराओ मत, उसके ही जानवर हैं, उसका ही खेत है, उसने ही चरवाया है। उसने एक बार फसल उगाई है तो हजार बार उगा सकता है। मुझे नहीं लगता कोई नुकसान हुआ है। वे लोग खेत पर गए और वहाँ देखा तो दंग रह गए, खेत तो पहले की तरह ही लहलहा रहा था।
एक बार जब वे भैंस चराते समय ध्यान में लीन हो गए तो खुले में ही लेट गए। सूरज तप रहा था जिसकी रोशनी सीधे बालक के चेहरे पर पड़ रही थी। तभी अचानक एक साँप आया और बालक नानक के चेहरे पर फन फैलाकर खड़ा हो गया। जमींदार रायबुलार वहाँ से गुजरे। उन्होंने इस अद्भुत दृश्य को देखा तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने नानक को मन ही मन प्रणाम किया। इस घटना की स्मृति में उस स्थल पर गुरुद्वारा मालजी साहिब का निर्माण किया गया।
उस समय अंधविश्वास जन-जन में व्याप्त थे। आडंबरों का बोलबाला था और धार्मिक कट्टरता तेजी से बढ़ रही थी। नानकदेव इन सबके विरोधी थे। जब नानक का जनेऊ संस्कार होने वाला था तो उन्होंने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि अगर सूत के डालने से मेरा दूसरा जन्म हो जाएगा, मैं नया हो जाऊँगा, तो ठीक है। लेकिन अगर जनेऊ टूट गया तो?
पंडित ने कहा कि बाजार से दूसरा खरीद लेना। इस पर नानक बोल उठे- 'तो फिर इसे रहने दीजिए। जो खुद टूट जाता है, जो बाजार में बिकता है, जो दो पैसे में मिल जाता है, उससे उस परमात्मा की खोज क्या होगी। मुझे जिस जनेऊ की आवश्यकता है उसके लिए दया की कपास हो, संतोष का सूत हो, संयम की गाँठ हो और उस जनेऊ सत्य की पूरन हो। यही जीव के लिए आध्यात्मिक जनेऊ है। यह न टूटता है, न इसमें मैल लगता है, न ही जलता है और न ही खोता है।'
एक बार पिता ने सोचा कि नानक आलसी हो गया है तो उन्होंने खेती करने की सलाह दी। इस पर नानकजी ने कहा कि वह सिर्फ सच्ची खेती-बाड़ी ही करेंगे, जिसमें मन को हलवाहा, शुभ कर्मों को कृषि, श्रम को पानी तथा शरीर को खेत बनाकर नाम को बीज तथा संतोष को अपना भाग्य बनाना चाहिए। नम्रता को ही रक्षक बाड़ बनाने पर भावपूर्ण कार्य करने से जो बीज जमेगा, उससे ही घर-बार संपन्न होगा।
गुरू नानक देव जी ने अपने अनुयायियों को जीवन के दस सिद्धांत दिए हैं। ये सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है।
1. ईश्वर एक है।
2. सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।
3. जगत का कर्ता सब जगह और सब प्राणी मात्र में मौजूद है।
4. सर्वशक्तिमान ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।
5. ईमानदारी से मेहनत करके उदरपूर्ति करना चाहिए।
6. बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ।
7. सदा प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने को क्षमाशीलता माँगना चाहिए।
8. मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके उसमें से जरूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।
9. सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।
10. भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए जरूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।
गुरू नानक देव जी के जीवन से जुड़े प्रमुख गुरुद्वारा साहिब
1. गुरुद्वारा कंध साहिब- बटाला (गुरुदासपुर) गुरु नानक का यहाँ बीबी सुलक्षणा से 18 वर्ष की आयु में संवत् 1544 की 24वीं जेठ को विवाह हुआ था। यहाँ गुरु नानक की विवाह वर्षगाँठ पर प्रतिवर्ष उत्सव का आयोजन होता है।2. गुरुद्वारा हाट साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) गुरुनानक ने बहनोई जैराम के माध्यम से सुल्तानपुर के नवाब के यहाँ शाही भंडार के देखरेख की नौकरी प्रारंभ की। वे यहाँ पर मोदी बना दिए गए। नवाब युवा नानक से काफी प्रभावित थे। यहीं से नानक को 'तेरा' शब्द के माध्यम से अपनी मंजिल का आभास हुआ था।
3. गुरुद्वारा गुरु का बाग- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) यह गुरु नानकदेवजी का घर था, जहाँ उनके दो बेटों बाबा श्रीचंद और बाबा लक्ष्मीदास का जन्म हुआ था।
4. गुरुद्वारा कोठी साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) नवाब दौलतखान लोधी ने हिसाब-किताब में ग़ड़बड़ी की आशंका में नानकदेवजी को जेल भिजवा दिया। लेकिन जब नवाब को अपनी गलती का पता चला तो उन्होंने नानकदेवजी को छोड़ कर माफी ही नहीं माँगी, बल्कि प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव भी रखा, लेकिन गुरु नानक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
5.गुरुद्वारा बेर साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) जब एक बार गुरु नानक अपने सखा मर्दाना के साथ वैन नदी के किनारे बैठे थे तो अचानक उन्होंने नदी में डुबकी लगा दी और तीन दिनों तक लापता हो गए, जहाँ पर कि उन्होंने ईश्वर से साक्षात्कार किया। सभी लोग उन्हें डूबा हुआ समझ रहे थे, लेकिन वे वापस लौटे तो उन्होंने कहा- एक ओंकार सतिनाम। गुरु नानक ने वहाँ एक बेर का बीज बोया, जो आज बहुत बड़ा वृक्ष बन चुका है।
6. गुरुद्वारा अचल साहिब- गुरुदासपुर अपनी यात्राओं के दौरान नानकदेव यहाँ रुके और नाथपंथी योगियों के प्रमुख योगी भांगर नाथ के साथ उनका धार्मिक वाद-विवाद यहाँ पर हुआ। योगी सभी प्रकार से परास्त होने पर जादुई प्रदर्शन करने लगे। नानकदेवजी ने उन्हें ईश्वर तक प्रेम के माध्यम से ही पहुँचा जा सकता है, ऐसा बताया।
7. गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक- गुरुदासपुर जीवनभर धार्मिक यात्राओं के माध्यम से बहुत से लोगों को सिख धर्म का अनुयायी बनाने के बाद नानक देव जी रावी नदी के तट पर स्थित अपने फार्म पर अपना डेरा जमाया और 70 वर्ष की साधना के पश्चात सन् 1539 ई. में परम ज्योति में विलीन हुए।
रविवार, 19 जून 2011
गुरुवार, 16 जून 2011
शुक्रवार, 10 जून 2011
बाबा वडभाग सिंह जी और बाबा नाहर सिंह से सम्बन्धित एक वृतचित्र
यह वृतचित्र टी-सीरीज़ द्वारा तैराज किया गया है।
शनिवार, 4 जून 2011
दश गुरू
गुरू नानक सिखों के प्रथम गुरु (आदि गुरू) है। इनके अनुयायी इन्हें गुरू नानक, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। 15 अप्रैल, 1469 को तलवंडी नामक स्थान में, कल्याण चंद नाम के एक किसान के घर उत्पन्न हुए। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया।
गुरू जानक देव जी के बारे में और जानकारियाँ
गुरू जानक देव जी के बारे में और जानकारियाँ
गुरू अंगद देव जी
गुरू अंगद देव सिखो के दूसरे गुरू हैं। गुरू अंगद साहिब जी (भाई लहना जी) का जन्म हरीके नामक गांव में, जो कि फिरोजपुर, पंजाब में आता है, वैसाख वदी १, (पंचम् वैसाख) सम्वत १५६१ (३१ मार्च, १५०४) को हुआ था। गुरुजी एक व्यापारी श्री फेरू जी के पुत्र थे। उनकी माता जी का नाम माता रामो जी था। बाबा नारायण दास त्रेहन उनके दादा जी थे, जिनका पैतृक निवास मत्ते-दी-सराय, जो मुक्तसर के समीप है, में था। फेरू जी बाद में इसी स्थान पर आकर निवास करने लगे।गुरू अंगद देव महाराज जी का सृजनात्मक व्यक्तित्व था।
गुरु अंगद देव जी के बारे में और जानकारियाँ
गुरु अंगद देव जी के बारे में और जानकारियाँ
गुरू अमर दास जी
गुरू राम दास जी

गुरू अर्जुन देव जी
गुरू हरगोबिन्द जी
गुरू हरि राय जी
गुरू हरिकृष्ण जी
गुरू तेग बहादुर जी
गुरू गोविन्द सिंह जी
शुक्रवार, 3 जून 2011
बाबा जी का मैड़ी आगमन और बाबा नर सिंह का सही मार्गदर्शन
पंजाब पर अहमद शाह अब्दाली के वर्ष 1756 में चौथे आक्रमण के दौरान उसने करतारपुर को तहस-नहस करके जला दिया तो. बाबा गुरबरभाग सिंह जी ने जसवान पहाड़ियों की ओर प्रस्थान किया।
लेकिन अफगान फौजों ने उनका पीछा किया लेकिन गांव नेहरी(नेहरियाँ) जिस अब 'दर्शनी खड्ड' कहा जाता है, के पास एक जल की धारा के पास पहुँचने पर गुरबरभाग सिंह ने प्रार्थना की और अचानक उस जल की धारा ने बाढ़ का रूप धारण कर लिया और पीछा कर रहे दुश्मन उस बाढ़ में बह गए।
इसके बाद बाबा जी गांव मैड़ी के पास के जंगलों में ध्यान और प्रभु-भक्ति के लिए के लिए एक बेर के पेड़(Zizyphus Jujuba) के नीचे बैठ गए। उस पेड़ पर नर सिंह(नार सिंह या नाहर सिंह), जो
उन प्रेतबाधित पहाड़ियों के सबसे शक्तिशाली राक्षस थे, रहते थे। नर सिंह किसी भी आकार या रूप ग्रहण कर सकता था और वो सफ़ेद वस्त्र धारण करके एक किशोर ब्राह्मण के रूप में सपने में महिलाओं को प्रताड़ित करता था और पीड़ितों को बीमारी, बुरी आत्माओं से जकड़े जाना, पागलपन आदि समस्याएँ होती थी। नर सिंह उस क्षेत्र में आने वाले किसी भी व्यक्ति को तंग किए बिना नहीं छोड़ता था।
अपनी आदत के अनुसार नर सिंह ने गुरबरभाग सिंह को भी अपने दुष्कृत्यों से अपने काबू में करने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका। बाबा गुरबरभाग सिंह ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग करते हुए नर सिंह पर कब्जा कर लिया और उसे एक पिंजरे (बाबा जी के पास एक तोता था पिंजरे में, तोते को उड़ा कर) में बन्द कर दिया।
नर सिंह ने बाबा जी से अपने ऊपर रहम करने को कहा और कहा- भूत-प्रेत ही मेरा भोजन है। भूत-प्रेत खाए बिना मैं मर जाऊँगा।
इस पर बाबा जी ने नर सिंह को हुक्म दिया कि अब से वो सिर्फ़ उन भूत-प्रेतों को अपना भोजन बनाए जो आम जनता को सताते हैं, भूत-प्रेत ग्रस्त लोगों को उन भूतों से छुड़ाए जो इस स्थान (डेरे) पर आएं !
नर सिंह ने बाबाजी का हुक्म मान लिया और वहाँ आने वाले हर भूत-प्रेत ग्रस्त मनुष्य को ठीक करने लगे।
नर सिंह को सत मार्ग पर लाने के लिए और अपनी महान आध्यात्मिक शक्तियों के कारण बाबा गुरबरभाग सिंह को असीम प्रसिद्धि की प्राप्ति हुई।
लेकिन अफगान फौजों ने उनका पीछा किया लेकिन गांव नेहरी(नेहरियाँ) जिस अब 'दर्शनी खड्ड' कहा जाता है, के पास एक जल की धारा के पास पहुँचने पर गुरबरभाग सिंह ने प्रार्थना की और अचानक उस जल की धारा ने बाढ़ का रूप धारण कर लिया और पीछा कर रहे दुश्मन उस बाढ़ में बह गए।
इसके बाद बाबा जी गांव मैड़ी के पास के जंगलों में ध्यान और प्रभु-भक्ति के लिए के लिए एक बेर के पेड़(Zizyphus Jujuba) के नीचे बैठ गए। उस पेड़ पर नर सिंह(नार सिंह या नाहर सिंह), जो
उन प्रेतबाधित पहाड़ियों के सबसे शक्तिशाली राक्षस थे, रहते थे। नर सिंह किसी भी आकार या रूप ग्रहण कर सकता था और वो सफ़ेद वस्त्र धारण करके एक किशोर ब्राह्मण के रूप में सपने में महिलाओं को प्रताड़ित करता था और पीड़ितों को बीमारी, बुरी आत्माओं से जकड़े जाना, पागलपन आदि समस्याएँ होती थी। नर सिंह उस क्षेत्र में आने वाले किसी भी व्यक्ति को तंग किए बिना नहीं छोड़ता था।
अपनी आदत के अनुसार नर सिंह ने गुरबरभाग सिंह को भी अपने दुष्कृत्यों से अपने काबू में करने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका। बाबा गुरबरभाग सिंह ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग करते हुए नर सिंह पर कब्जा कर लिया और उसे एक पिंजरे (बाबा जी के पास एक तोता था पिंजरे में, तोते को उड़ा कर) में बन्द कर दिया।
नर सिंह ने बाबा जी से अपने ऊपर रहम करने को कहा और कहा- भूत-प्रेत ही मेरा भोजन है। भूत-प्रेत खाए बिना मैं मर जाऊँगा।
इस पर बाबा जी ने नर सिंह को हुक्म दिया कि अब से वो सिर्फ़ उन भूत-प्रेतों को अपना भोजन बनाए जो आम जनता को सताते हैं, भूत-प्रेत ग्रस्त लोगों को उन भूतों से छुड़ाए जो इस स्थान (डेरे) पर आएं !
नर सिंह ने बाबाजी का हुक्म मान लिया और वहाँ आने वाले हर भूत-प्रेत ग्रस्त मनुष्य को ठीक करने लगे।
नर सिंह को सत मार्ग पर लाने के लिए और अपनी महान आध्यात्मिक शक्तियों के कारण बाबा गुरबरभाग सिंह को असीम प्रसिद्धि की प्राप्ति हुई।
बाबा जी का जन्म और बचपन
बाबा गुरबरभाग सिंह(बाबा जी का बचपन का नाम), बाबा राम सिंह और माता राज कौर के पुत्र हैं और धीर मल के 'दशम पादशाही' गुरु गोबिंद सिंह की चचेरी बहन के वंश, करतारपुर में 13 अगस्त ईस्वी 1716 पैदा हुए थे। उन्हें करतारपुर के सोढी वंश की गद्दी (धार्मिक पद) उत्तराधिकार में मिली थी। बाबा जी के बचपन की कई कहानियाँ सुनाई जाती हैं।
उनमें से एक :
अपने बचपन के दौरान एक बार गुरभाग सिंह ने अपने साथियों के साथ खेल रहे थे और उनके बाल बिखरे हुए थे।
इस पर टिप्पणी करते हुए एक साथी ने कहा कि वह एक भूत की तरह लग रहे हैं।
इस पर उस समय के प्रसिद्ध श्रद्धानन्द नाम के एक ज्योतिषी जो संयोगवश वहीं पर थे, ने गुरबरभाग सिंह को अपने पास बुलाया और भविष्यवाणी की कि वो एक भूत नहीं बल्कि भूतों के 'गुरु' होगें।
उनमें से एक :
अपने बचपन के दौरान एक बार गुरभाग सिंह ने अपने साथियों के साथ खेल रहे थे और उनके बाल बिखरे हुए थे।
इस पर टिप्पणी करते हुए एक साथी ने कहा कि वह एक भूत की तरह लग रहे हैं।
इस पर उस समय के प्रसिद्ध श्रद्धानन्द नाम के एक ज्योतिषी जो संयोगवश वहीं पर थे, ने गुरबरभाग सिंह को अपने पास बुलाया और भविष्यवाणी की कि वो एक भूत नहीं बल्कि भूतों के 'गुरु' होगें।
बाबा वडभाग सिंह जी का डेरा हिमाचल प्रदेश में जिला उना की अम्ब तहसील में उना>अम्ब>नादौन>हमीरपुर मार्ग पर उना से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर मैड़ी नामक गाँव में स्थित है।
माना जाता है कि बाबा वडभाग सिंह जी के डेरे में आने से और बाबा नाहर सिंह जी की धौली धार में स्नान करने से भूत-प्रेत, जिन्न व बुरी आत्माओं द्वारा सताए लोगों को पूर्ण लाभ मिलता है और किसी दुष्ट द्वारा किसी के ऊपर कुछ किए-कराए का अन्त होता है।
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